बस कि आत्मकथा [Bus ki Atma katha]

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bus ki atmkatha

भूमिका- मैं बस हूँ | परिवहन के के अनेक साधनों में से एक | जनता-जनार्दन की सेविका | अनेकानेक रूप-रंगों में सड़को पर दौर-दौरकर लोगों को उनकी मंजिल तक पहुँचने वाली सेविका | आप ठहरने के हाथ दिखाते हैं, मैं ठहर जाती हूँ | कंडक्टर की सिटी की धुन पर मैं दिन-रात नाचता हूँ  | ड्राईवर के हाथ का खिलौना हूँ मैं | वह अपनी मर्जी से कबी तेज़ दौराता है, तो कभी कछुए की चल चलता है | चलिए, आप भी स्वर हो जाईये मुझ पर ! मैं आपको अपनी कहानी सुनानी चाहती  हूँ |

विस्तार- कारखाने से जब साज़-धजकर नई नवेली दुल्हन की तरह मैं निकलती थी, तब मेरी शान ही निराली थी | मेरे मालिक ने फूल मालाओं से मेरा श्रृंगार किया था | यात्री अन्य वाहनों को चोरकर
मेरी सवारी बनना चाहते थे | रंग-रोगन से सजी थी और सुन्दर नरम गद्दियँ थीं मेरी |


समय परिवर्तनशील है | सदा एक-सा नहीं रहता |
मेरे दिन भी बदलने लगे | अंजर-पंजर ढीले पड़ने लगे | बार-बार मुझे मकेनिक के पास ले जाने लागा | चलते-चलते अचानक मेरा दम फूलने जाता और में थम जाती | गर्मी से बेहाल यात्री पानी-पि-पीकर मुझे कोसते | कुछ दुष्ट तो मुझे लतें तक मारते, पान की पीक थूक देते, कुड़ा-कचड़ा फैला देते | 

में अबला निष्प्राण क्या करती ! सब चुपचाप सहती रहती | एक बार हड़तालो में मेरा ओ बुरा हाल किया की दस दिन तक मैं प्रिय सखी सड़क से नही मिल पाई | पत्थर मार-मारकर कर मेरे शीशे तोड़ दिए, सीटें फाड़ दिए | डंडे
मार-मारकर कचुम्मार ही निकल दिया |


उपसंहार- गीत
ही जीवन है | मैं तो संतो की वाणी का अनुसरण करती हुँ- ‘चरैवेति-चरैवेति’ अर्थात्-
‘चलते रहो,चलते रहो’ | निरंतर आगे बढ़ना ही मेरा लक्ष्य है | गाँव- शहर, जंगल-पर्वत पार करती मैं निरंतर गतिशील रहती हुँ | जो भी मेरे गोद में आश्रय लेता है, उसे
उसके मजिल तक पहुँचती हुँ | गतिवान रहना और गतिशील बनाना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है और इसे प्राप्त करने ही मेरे जीवन की सार्थकता है |


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